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Sunday, July 7, 2013

अज़ीज़ जौनपुरी : अक्श हैं मेरे फ़साने

   अक्श हैं मेरे फ़साने 


 सामने  आते  भी  नहीं  चिलमन  को हटाते भी नहीं
 हिज्र में मरते भी  नहीं   हँस -हँस के रुलाते भी नहीं

 अजीब    पर्दा   है   कि  सब  कुछ  दिखाई   देता   है 
 मासूम कातिल की तरह छुप-छुप के सताते भी नहीं

 हाय  ये  ज़िन्दगी  न  आग  लगे  न  सुपुर्दे-ख़ाक हो
 वो भूल गये  मुझको  ख्वाबों  में अब  आते  भी नहीं

 मुद्द्तें  गुजरीं  दर्दे -तन्हाई  को  सीने में छुपा रखा है
 हसरते - दिल  में  वो  कोई  उम्मीद जगाते  भी नहीं

 अक्श   हैं    जिनके    पेशानी   पे   मेरे   फ़साने  हैं
 बगल  से  गुज़र  जाते    हैं   नज़रें   उठाते   भी नहीं

कसम  ख़ुदा की न चखी न गया  किसी मयखाने में
आँखों   के   मयकदे   का    रस्ता   दिखाते   भी नहीं

अहसान- फ़रोश  नहीं   बहम  मेरी  फ़ितरत  में नहीं
खुल -खुल के बताते भी नहीं ख्वाबों  बुलाते  भी नहीं

ज़ाम   भी  है  ज़माना भी ,  साकी  भी  है  पैमाना भी
दिल  में  आते  भी  नहीं  और दिल  से जाते भी नहीं



                                          अज़ीज़ जौनपुरी     

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमवार (08-07-2013) को मेरी 100वीं गुज़ारिश :चर्चा मंच 1300 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर प्रस्तुति-
    आभार आदरणीय ||

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