अक्श हैं मेरे फ़साने
सामने आते भी नहीं चिलमन को हटाते भी नहीं
हिज्र में मरते भी नहीं हँस -हँस के रुलाते भी नहीं
अजीब पर्दा है कि सब कुछ दिखाई देता है
मासूम कातिल की तरह छुप-छुप के सताते भी नहीं
हाय ये ज़िन्दगी न आग लगे न सुपुर्दे-ख़ाक हो
वो भूल गये मुझको ख्वाबों में अब आते भी नहीं
मुद्द्तें गुजरीं दर्दे -तन्हाई को सीने में छुपा रखा है
अहसान- फ़रोश नहीं बहम मेरी फ़ितरत में नहीं
खुल -खुल के बताते भी नहीं ख्वाबों बुलाते भी नहीं
ज़ाम भी है ज़माना भी , साकी भी है पैमाना भी
दिल में आते भी नहीं और दिल से जाते भी नहीं
अज़ीज़ जौनपुरी
हाय ये ज़िन्दगी न आग लगे न सुपुर्दे-ख़ाक हो
वो भूल गये मुझको ख्वाबों में अब आते भी नहीं
मुद्द्तें गुजरीं दर्दे -तन्हाई को सीने में छुपा रखा है
हसरते - दिल में वो कोई उम्मीद जगाते भी नहीं
अक्श हैं जिनके पेशानी पे मेरे फ़साने हैं
बगल से गुज़र जाते हैं नज़रें उठाते भी नहीं
कसम ख़ुदा की न चखी न गया किसी मयखाने में
आँखों के मयकदे का रस्ता दिखाते भी नहीं
आँखों के मयकदे का रस्ता दिखाते भी नहीं
अहसान- फ़रोश नहीं बहम मेरी फ़ितरत में नहीं
खुल -खुल के बताते भी नहीं ख्वाबों बुलाते भी नहीं
ज़ाम भी है ज़माना भी , साकी भी है पैमाना भी
दिल में आते भी नहीं और दिल से जाते भी नहीं
अज़ीज़ जौनपुरी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमवार (08-07-2013) को मेरी 100वीं गुज़ारिश :चर्चा मंच 1300 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खूबशूरत ग़ज़ल
ReplyDeleteWaaaaaaah . Bahut khusurat . zindabad .
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय ||