यातना
बचपना जो कोख से ही जल रहा है भूख से
क्या भरोसा एक दिन विध्वंस की ज्वाला बने
यातना की वेड़ीओं में भाग्य जिनके जकड़े रहे हो
क्या भरोसा एक दिन वो खून की दरिया बने
गरीबी ता उम्र जो पढ़ती रही है मर्सिया मौत की
क्या भरोसा एक दिन वह मौत का फंदा बने
पीढ़िय कर्ज की दीवारों में रोज जो ठुकती रही हो
क्या भरोसा एक दिन वह आग औ अंगारा बने
नग्नता फांके घुटन विरासत में जिनको मिले हो
क्या भरोसा एक दिन चेतना उनकी बागी बने
अज़ीज़ जौनपुरी
बचपना जो कोख से ही जल रहा है भूख से
क्या भरोसा एक दिन विध्वंस की ज्वाला बने
यातना की वेड़ीओं में भाग्य जिनके जकड़े रहे हो
क्या भरोसा एक दिन वो खून की दरिया बने
गरीबी ता उम्र जो पढ़ती रही है मर्सिया मौत की
क्या भरोसा एक दिन वह मौत का फंदा बने
पीढ़िय कर्ज की दीवारों में रोज जो ठुकती रही हो
क्या भरोसा एक दिन वह आग औ अंगारा बने
नग्नता फांके घुटन विरासत में जिनको मिले हो
क्या भरोसा एक दिन चेतना उनकी बागी बने
अज़ीज़ जौनपुरी
bahut achcha likha hai
ReplyDeleteबढ़िया गजल |
ReplyDeleteबधाई भाई-
ये पंक्ति बर्दाश्त करें -
गर्भवती नारी हुई, वही कुपोषण मार |
ख़त्म रसोईं कर चखे, मात्र कौर दो-चार |
मात्र कौर दो-चार, भार दो जन का ढोती |
अपने ही आगार, आज भी डर डर सोती |
धुरी हुई कमजोर, जनम कन्या का होवे |
करके कन्या शोर, नींद में गहरी सोवे ||
आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा आपकी पोस्ट सराहनीय है सुन्दर अभिव्यक्ति..श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ऑनर किलिंग :सजा-ए-मौत की दरकार नहीं
ReplyDeleteAti sundar...a painful rhyme.
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