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Sunday, August 26, 2012

Kumar Anil :vaidhvya



            
 वैधब्य   


आहात  वैधब्य- जीवन  की   व्यथा  का  कर पृथक श्रिंगार 
संतप्त  वर्जित  बेदाना बन जल जल  वो मरती  जा रहीं  है 
यह बज्र है  दुर्भाग्य, अभिशाप का, संत्रास  का, निर्वास का  
मर्यादा  हनन  की लाज  में वो  खुद  को जलाती जा रही हैं 
 है यह  प्रथा विश्वास की, विरासत सांस्कृतिक इतिहास कि
बन  इस देस का स्वर्णिम अतीत वो  राख  होती जा रही  हैं  
बन प्यास की बूढ़ी सदी, सरिता  मर्यादा के  विरोधभास की 
वैद वार्णित व्यवस्था के यक्ष प्रश्नों सी वो उलझती जा रहीं है 
है व्यवस्था धर्म की या अभागी आस्था के घृणित विश्वास की 
किसतरह परलौकिक प्यार की अग्नि में खाक होती जा रहीं हैं 



                                                        अज़ीज़ जौनपुरी 

2 comments:

  1. है व्यवस्था धर्म की या अभागी आस्था के घृणित विश्वास की
    किसतरह परलौकिक प्यार की अग्नि में खाक होती जा रहीं हैं
    बहुत गहरी बात कही अज़ीज़ जी ने सुन्दर प्रस्तुति.बधाई .आभार.तुम मुझको क्या दे पाओगे?

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