सच
दुष्यंत के सच वाकई में कल्पना से आगे नकलने लग गये हैं
यूँ कहो आदमी अब आदमी को भून कर खाने लग गए हैंबरगद साक्षी है भीड़ बन हुंकार कैसे घर जलाने लग गये हैं
जिन्दा जलाओ आदमी को सब के सब यह कहने लग गये हैं
तड़पती भूख से बेटिओं पर अब ये कैसे झपटने लग गये हैं
देखते ही देखते अब कैसे विश्वास जल खाक होने लग गये हैं
शहर में दंगे थे आम अब गांवों में भी दंगे भड़कने लग गये हैं
जलरही है सभ्यता सदिओं पुरानी आदमीखंजर होने लग गए हैं
कितने मरगये भूखे से कितने कतारों मे खड़े होनेलग होने गये हैं
एक घर फ़रहा का ऐसा क्या मिला की देखसब घबराने लग गये हैं
गलबहिंया मंदिरों और मस्जिदों की देख सब चिल्लाने लग गये हैं
बिसंगति कहें या क्या कहें इसको देख सब ये कहने लग गये हैं
दुष्यंत के सच वाकई में कल्पना से आगे निकलने लग गए हैं
अज़ीज़ जौनपुरी
एक घर फ़रहा का ऐसा क्या मिला की देखसब घबराने लग गये हैं
गलबहिंया मंदिरों और मस्जिदों की देख सब चिल्लाने लग गये हैं
बिसंगति कहें या क्या कहें इसको देख सब ये कहने लग गये हैं
दुष्यंत के सच वाकई में कल्पना से आगे निकलने लग गए हैं
अज़ीज़ जौनपुरी
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (01-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!