Friday, 8 March 2013
( ब्लॉग से विलुप्त पुरानी प्रस्तुति )
पता ख़ुदा का
वार्षों से आँखों में तेरे ,क्यूँ नहीं दिखे अरमान के आँसू
वैसे तो रो- रो कर तुमने , अपनी सारी उमर गुज़ारी है
कभी शिवाले मन्दिर जाती, सज़दे करती दरगाहों पर
नहीं कहीं भगवान मिला, रो- रो थक तूँ आब हारी है
नगरी-
नगरी द्वारे- द्वारे, इस कोने से उस कोने तक
क्यों नहीं मिला, वह, कहाँ गया, यह कैसी लाचारी है
धीरे-धीरे भींग गई हैं , बिन पानी सारी ईंटे जीवन की
खो गया आज अल्लाह कहीं , यह कैसी दुस्वारी है
हवन
- होम सब करा लिया, कितनी बार काबे हो आई
क्या गुनाह मैनें कर डाला, मुझसे ऐसी क्यों बेज़ारी है
काशी
- मथुरा,
मक्क़े - मदीने, कहाँ - कहाँ मैं नहीं गई
चर्चों गुरुद्वारों में ढूंढ़ा अब जीवन ख़ुद पर ही भारी है
कण
- कण
से पूँछ - पूँछ कर तन्हाँ हो जीवन से हारी
नहीं
दिखा
गीता कुरान में क्यों, यह कैसी पर्देदारी है
दिल
देख लिया होता"अज़ीज़"का पता
ख़ुदा का मिल
जाता
वो तेरे, मेरे,
सब के भीतर है,
ख़ुदा "अज़ीज़"की तो यारी
है
सुन्दर,
ReplyDeleteआदरणीय||
बहुत ही बेहतरीन सुन्दर प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeleteवाह वाह बहोत खुब वाह वाह
ReplyDeleteSuperb.
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ReplyDeleteना मंदिर ,ना मस्जिद ,ना गिरजे में मिलेंगे
आँख मूंदो दिल-द्वार खोलो ,खुदा वहीँ मिलेंगे
LATEST POSTसपना और तुम
वाह ... बेहतरीन
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ReplyDeleteहवन - होम सब करा लिया, कितनी बार काबे हो आई
क्या गुनाह मैनें कर डाला, मुझसे ऐसी क्यों बेज़ारी है
अज़ीज़ साहब लाज़वाब कर दिया इस अभिव्यक्ति ने .शुक्रिया आपकी सादर टिप्पणियों का .
प्रशंसा नहीं पर 'अजीज' जी बडे अजीजी से कह रहा हूं आपके पदों में कबीर के पदों का रूप झलकता है। अब आपकी जिम्मेदारी बढेगी और दबाव महसूस करेंगे पर कोई बात नहीं इस दबाव से बडी ताकतवर कविता, पद निकलते हैं, निकलने दें। वाणी में धार है, कलम में भी है और आधुनिक साधनों को अपनाया है चलाते रहें।
ReplyDeletedrvtshinde.blogspot.com
वाह.....
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल...उम्दा शेर...
सादर
अनु
कस्तूरी-मृग सा इधर उधर खोजते ही ज़िन्दगी बीत जाती है
ReplyDeleteपर जो अपने अंदर है वह बाहर कैसे मिलेगा ........
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल .....
धन्यवाद.....