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Wednesday, September 5, 2012

Kumar Anil : afsos

अफ़सोस  




हवाएँ किसकदर बन आंधियाँ  अब तेज चलने लग गईं हैं 
अफ़सोस  ,जिंदगी के  व्याकरण  ही अर्थ खोने लग गएँ हैं 
जिन  आईनों  ने  जिंदगी  में  सब्र  से  था जीना  सिखाया 
अफ़सोस  , अब  वो आईने  खुद  ही  दरकने  लग  गए  हैं 
खींच  कर  नक्शे -पां जो पानी  पर  समंदर   में  ऊकेरें  थे 
अफ़सोस  ,लहरें- समंदर अब वो पानी  बहाने  लग गयें हैं 
खेल सांप-सीढ़ी का बे वज़ह  हरदम लुभाने लग गया था 
अफसोस, हर चाल को अब  सांप  निगलने  लग गए  है 
अनपढ़ो ने पढ़ लिया लिया था जिन किताबों को मुक्कमल
अफ़सोस, अब उन किताबों  के पन्ने  बिखरने लग गये हैं
एक समझौता  हुआ था  रोशनी से  अंधेरों  को मिटाने का 
अफसोस ,उजाले अब अंधेरों में,चुपचाप छलने लग गए हैं 


                                                             अज़ीज़  जौनपुरी 

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