मुमकिन
मुमकिन है जंजीरे- तूफां तोड़ दूँ मैं
किसी उजड़े का घर बसाना कब मना है
मुमकिन का वीराने- शहर को छोड़ दूँ मैं
किसी रूठे हुए को मनाना कब मना है
मुमकिन है दीवारे - बंदिश तोड़ दूँ मैं
किसी गिरते मकाँ को बचाना कब मना है ।
मुमकिन है सारी हदों को तोड़ दूँ मैं
किसी मोमिन को कांधा देना कब मना है ।
मुमकिन है अहदे- जफ़ा को तोड़ दूँ मैं
किसी भूखे को रोटी खिलाना कब मना है ।
मुमकिन है तूफ़ाने- बला को मोंड़ दूँ मैं
किसी मज़लूम की मय्यत पे रोना कब मना है ।
मुमकिन है सीने- ख़ंजर तोड़ दूँ मैं
किसी रोते को चुप कराना कब मना है ।
मुमकिन है ज़हरे- नफ़रत को मिटा दूँ मैं
किसी बुत से मुहब्बत करना कब मना है ।
मुमकिन है राहें- पत्थर तोड़ दूँ मैं
किसी बेवा का मेहंदी रचाना कब मना है ।।
अज़ीज़ जौनपुरी
मुमकिन है जंजीरे- तूफां तोड़ दूँ मैं
किसी उजड़े का घर बसाना कब मना है
मुमकिन का वीराने- शहर को छोड़ दूँ मैं
किसी रूठे हुए को मनाना कब मना है
मुमकिन है दीवारे - बंदिश तोड़ दूँ मैं
किसी गिरते मकाँ को बचाना कब मना है ।
मुमकिन है सारी हदों को तोड़ दूँ मैं
किसी मोमिन को कांधा देना कब मना है ।
मुमकिन है अहदे- जफ़ा को तोड़ दूँ मैं
किसी भूखे को रोटी खिलाना कब मना है ।
मुमकिन है तूफ़ाने- बला को मोंड़ दूँ मैं
किसी मज़लूम की मय्यत पे रोना कब मना है ।
मुमकिन है सीने- ख़ंजर तोड़ दूँ मैं
किसी रोते को चुप कराना कब मना है ।
मुमकिन है ज़हरे- नफ़रत को मिटा दूँ मैं
किसी बुत से मुहब्बत करना कब मना है ।
मुमकिन है राहें- पत्थर तोड़ दूँ मैं
किसी बेवा का मेहंदी रचाना कब मना है ।।
अज़ीज़ जौनपुरी
बढ़िया ग़ज़ल!
ReplyDeleteश्रावणीपर्व और रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएं!
bahut achha likha hai
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